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| शकुंतला |
बर्तन देकर आते हैं कपड़े
तुर्भे नाका पर स्काई वाक के नीचे आधे किलोमीटर में हर संडे सजती है ये रविवार पेठ, कपड़ों की बाजार,गरीबों की बाजार. यहां पुराने कपड़ों की आस में वे लोग आते हैं जो मजदूर होते हैं, वे भी आते हैं जो बड़े परिवार वाले हैं,जहां सबके लिए हर बार नया वस्त्र खरीद पाना मुश्किल होता है.या यूं कहें कि खरीदने के लिए पैसे नहीं होते.बाजार सजाने वाले बताते हैं कि बाबा-बेबी से लेकर भैया बाबी के लिए या चाचा-मामा सबके लिए मनचाही कीमत में मिलने वाले ये तन-बदन ढ़कने वाले ये कपड़े बर्तन देकर लाए जाते हैं.फेरीवाली कुछ महिलाएं प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों के बदले पुराने और बिन फटे ऐसे व लेती हैं.आप ने भी कई बार कपड़ों के बदले ऐसे बर्तन बेचने वाली महिलाओं को हांक लगाते सुना देखा होगा. कहते हैं घर-घर से इकट्ठा होने वाला यही कपड़ा यहां रविवार पेठ जैसी फुटपाथी बाजारों में बिकता है.कुछ लोग इसे गोदी का माल कहकर जबकि कुछ लोग अमीरों द्वारा एक बार पहनकर छोड़ा हुआ कपड़ा कहकर बेचते हैं. हालांकि इन बातों से परे गरीब लोगों के लिए ये सिर्फ कपड़े होते हैं जिनसे तन ढकता है.जिसे पहनने के बाद हम आदम नहीं इंसान नजर आते हैं , और सभ्य कहलाते हैं.
5 में बुशर्ट 40 में पतलूनअपने 55 साल के पति के साथ वड़ाला से हर संडे गठरी लेकर यहां दुकान सजाने वाली शकुंतला कहती है कि उसके जैसे फुटपाथी दुकानदारों की वजह से ही गरीबों के लिए तन ढकने का कपड़ा मिल जाता है. शकु समझाती है कि रविवार पेठ आम लोगों के लिए बाजार है लेकिन गरीबों के लिए खुशियां खरीदने का ठिकाना. और मेरे लिए रोजी का जरिया. 50 साल की अधेड़ शकू अपने अधेड़ और रंगरीले पति के साथ वड़ाला,कुर्ला,तलोजा और कर्जत तक बाजार हाट सजाती है.कपड़े बेचती है.यही उसकी घर गृहस्थी का साधन है. पुरषोत्तम कहता है फुटपाथ की दुकान पर शर्ट-पैंट बेचकर क्या मिलता है साब..करते धरते बस जी रहे हैं लोग पुराने कपड़ों के लिए भी पचास मोल भाव करते हैं. जवान लोगों की बुशर्ट 5 रुपए से लेकर 30-35 रुपए में और पतलून ४०से ६० रुपए में बेचना पड़ता है.मोल भाव देखकर 50 रुपए की चीज का दाम बढाकर चढ़ाकर 150 से 200 रुपए बोलना पड़ता है. जितना मांगो, लोग उतना थोड़े ही दे देते हैं.
कपड़ों से जलता है चूल्हा
कभी सुने हैं कि कपड़ों से घर गृहस्थी चलती है. मुलुंड से अपनी ननद किशोरी के साथ बाबा-बेबी के फ्राक और बुशर्ट बेचने आयी बिन्द्रा कहती है कि कपड़े न बिकें तो घर का चुल्हा नहीं जले.बिंद्रा को कपड़े बेचने का धंधा उसकी सास ने सिखाया.वो नहीं रही तो अब ननद के साथ मिल कर कपड़ों का कारोबार खुद संभालने लगी. वह ग्राहकों को आता देख जोर जोर से आवाज देती है,साड़ी ले लो,ब्लाउज ले लो.यहां सुहागिनों के लिए रंग-बिरंगी साडिय़ां होती हैं-जारजेट की,कढ़ाई वाली,सिफान की, और भी कई तरह की. खरीदार ग्राहक साडियों की डिजाईन नहीं कीमत देखते हैं. उसकी पुरानी व चमकदार साडिय़ां 100 से 200 में बिकती हैं.बिन फटी , मजबूती और रंग-रूप के हिसाब से. मोलभाव भी खूब चलता है,लेकिन दिन भर की बाजार से 1 से डेढ़ हजार की कमाई हो जाती है..किशोरी शरमा कर बताती है कि कभी-कभी आपस में तु-तु मैं-मैं भी होती है लेकिन फिर हम ननद-भाभी बहनों की तरह काम में जुट जाती हैं, आखिर धंधा है, झगड़े से नहीं मेहनत से चलता है.

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