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| दादरी का दर्द ना जाने कोय |
महज एक झूठी अफवाह के बाद दादरी में अखलाख की हत्या और उसके बाद फैली हिंसा हमारे सामाजिक सौहार्द्र पर गहरी चोट है.इस पर राजनीतिक रोटी सेंकनाए उससे भी ज्यादा दुखद है, लेकिन सबसे बड़ा दुखद पहलू 24 साहित्यकारों द्वारा अकादमी पुरस्कारों को लौटाने के रुप में सामने आया है. ये वे कलमकार हैं जो अपनी लेखनी से समाज को अमन और इंसानियत का पाठ पढ़ाते आए थे लेकिन आज अचानक बागी हो गए हैं. महज इसलिए कि प्रधानमंत्री मोदी ने अखलाक की मौत और जलती दादरी पर क्यों नहीं बोला. हल्ला तो ये भी मचाया जा रहा है कि देश का सामाजिक सौहार्द्र खतरे में है. हालात अराजक हो गए हैं. परोक्ष तौर पर सबका संकेत मोदी सरकार की ओर है. पद्मश्री लौटाने वाली मशहूर पंजाबी लेखिका दलीप कौर तिवाना ने बयान में कहा है कि गुरुनानक देव और गौतम बुद्ध की इस धरती पर 1984 में सिखों के साथ और हाल में मुसलमानों के साथ बढ़ती सांप्रदायिकता के कारण हो रहे अत्याचार समाज और देश के लिए शर्मनाक हैं.सच और न्याय के लिए खड़े होने वालों की हत्या हमें ईश्वर और दुनिया के सामने शर्मसार कर रहे हैं.दूसरे कलमकारों ने भी कुछ ऐसे ही बयान दिए हैं,उनके बयान साहित्यिक या सामाजिक नहीं लगते.उनमें कहीं भी अखलाख,दादरी और समाज के प्रति संवेदना नहीं दिखती.बस वे दूसरों पर दोषारोपण का धर्म निभाने को लालायित दिखते हैं.जरुरी तो ये था वे खुद दादरी जाते,जहां वारदात के बाद नेताओं ने राजनीति की आग भड़कायी थी,वहां सौहार्द्र का पानी उड़ेल आते.सद्भावना का मरहम लगा आते.पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए लेख और खत लिखते.शांति.सद्भावना की अपील करते ताकि हिंसा व साम्प्रदायिकता का जहर न फैले,लेकिन किसी ने भी ऐसा नहीं किया.सब धधक रही नफरत की आग में घी झोंक रहे हैं.सरकार की चुप्पी का नाम लेकर ठंडे हो रहे माहौल को राजनीतिक आंच से तपाने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है सरकार के विरोध वाली कांग्रेस.सपा आदि पार्टियां अखलाक के साथ पुरस्कार लौटाने के नए मुद्दे पर भी हो हल्ला मचाएंगी और वे खुद को देश का असली संरक्षक और हमदर्द दिखाने की कोशिष करेंगी.ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या साहित्यकारों को धर्म केवल काल्पनिक कहानियों में ही सौहार्द्र दिखाना है. अथवा केवल लेख और उपन्यासी कथाओं के जरिए ही राष्ट्रीयता का भोपू बजाने से उनका फर्ज पूरा हो जाता है. अगर साहित्य का मतलब समाज के हित से है तो वे उस हित को प्रत्यक्ष साधने की जिम्मेदारी क्यों नहीं उठा रहे. मुझे उन महान साहित्यकारों की मानसिकता पर कोफ़्त हो रही है जो समझने लगे हैं कि उन्होंने अकादमी पुरस्कार लौटा कर बहुत बड़ा राष्ट्रीय कर्तव्य निभा दिया है. आखिर क्यों वे कानून व्यवस्था और जांच प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर किसी नेता, सरकार या समाज को दोषी ठहराने पर आमादा हैं. तिवाना को याद होना चाहिए कि अखलाक की हत्या सच और न्याय के लिए आवाज उठाने के कारण नहीं बल्कि एक झूठी अफवाह के कारण हूई. इसका फायदा कौन लोग उठा रहे हैं यह भी देखने वाली बात है. पुलिस ने कार्रवाई की. राज्य और केन्द्र की दोनों सरकारें इसे लेकर गंभीर भी दिखती हैं. ऐसे में एक वारदात के लिए पूरे देश में साम्प्रदायिक माहौल का हल्ला उड़ाना कितना जायज है. क्या पाकिस्तान, बंग्लादेश तथा अन्य पड़ोसी देशों की तुलना में भारत के हालात वाकई इतने खराब हैं कि बड़े.बड़े साहित्यकार भी आजम खान की भाषा बोलने लगें. क्या ऐसा कहकर देश के सौहार्द्र को और बिगाड़ने तथा राजनीतिक द्वंद को हवा देने का काम नहीं किया जा रहा जबकि 60 सालों बाद देश एक अलग आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने को प्रतिबद्ध दिख रहा है. साहित्यकारों को चाहिए कि वे दादरी जाएं और उन उजड़े और लहुलुहान घरों में विश्वास का आसरा जगांए. प्यार और शांति का सद्भावना का माहौल बनाएं ताकि फिर कोई अखलाक न मरे.कुछ ऐसा करें जिससे भयभीत परिवारों की जिन्दगी दुबारा पटरी पर लौट सके. मैं तो यही कहता हूं कि पुरस्कार लौटाने से क्या होगा साहित्यकारों, चलो दादरी जाकर पीड़ितों के आंसू पोछ कर आते हैं. आखिर अपुन का भी तो कुछ फर्ज बनता है भाई....

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