गुरुवार, 15 मई 2014

मनी के लिए मेहनत करते मासूम


chhotu

एक गाना याद आता है नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है,जवाब है, मुट्ठी में है तकदीर तुम्हारी..इस गाने से उलट शहर के गली-मुहल्लों में कचरा चुनते और भीख मांगते कुछ बच्चों को देखकर सवाल उठता है कि अगर मुट्टी में तकदीर है तो फिर देश के इन नौनिहालों को खेलने की उम्र में जीने के लिए यूं मशक्कत क्यों करनी पड़ रही...नेरुल का मोनू, सानपाड़ा की रोशनी और वाशी सिग्नल का छोटू, सब बेहाल हैं. ये वो मासूम हैं जिनके नाम भले अलग हैं लेकिन हालात एक जैसे. पुर्व प्रधानमंत्री चाचा नेहरू बच्चों को देश का भविष्य मानते थे. लेकिन आज इस देश में छोटू व मोनू जैसे न जाने कितने ही नौनिहाल हैं जो घर की गरीबी, पेट की भूख और बेबशी के लिए अपने भविष्य को बेचने के लिए मजबूर हैं. देश के कानून और कल्याण योजनाओं से अछूते. अपनी मजबूरी में, मुफलिसी में, बेबस मां-बाप और परिवार के साथ. ये दिन रात
मेहनत करते हैं ताकि अंधेर रातों में घर का चूल्हा जल सके.
         पढ़ लिया तो धंधे पर जाओ
 अब जरा इस छोटू से मिल लिजिए. 13 साल का छोटू नेरूल के  मनपा स्कूल में पढ़ाई करता है, दूसरे बच्चों की तरह खेल-कूद, मौज-मस्ती उसे भी पसंद है लेकिन आर्थिक तंगी में कई भाई-बहनों की परवरिश कर रहे पिता शरीफ के लिए वह छोटे हाथ वाला मदद का मसीहा है. स्कू ल से लौटने पर बस्ता रखने के बाद संध्या पाली को घर लौटने वाले छात्रों के लिए स्कूल के पास कैन्डी बेचना उसका रोज का धंधा है. छोटू रुआंसा हो बतलाता है कि स्कूल से आने के बाद उसका बाप कहता है पढ़ के आ गया अब धंधे पे निकल जा...खेलने की चाहत और न जाने की मनसा के बावजूद भी परिजनों की परवरिश कर रहे बाप का फरमान मानकर निकलना उसकी मजबूरी है. भाड़े की खोली में मां-बाप का बनाया कैन्डी का पैकेट लिए  वह कभी नेरूल, शिरवणे तो कभी वाशी या सानपाड़ा के स्कूल-उद्यानों और गली-मुहल्लों की खाक छानता है.
रोशनी                               
     रोटी के लिए मेहनत जरुरी है
 जमीन से 15 फूट उपर पतली रस्सी पर एक पांव पर झूलती हुई रोशनी किसी स्कूल में नहीं जाती लेकिन लोहे की रिंग और रस्सियों पर सर्कस का खेल दिखाकर अपने परिवार के लिए रोज सौ-दो सौ कमा लेती है. स्कूल क्यों नहीं जाती, इस सवाल पर वो खामोश हो जाती है लेकिन उसका बाप भगीरथ बोलता है- साब गरीब हैं, काम नहीं करेंगे तो घर कैसे चलेगा. जीने के लिए पैसे नहीं फिर बच्चे कैसे पढ़ाएं.  6 साल के मोनू की कहानी भी इससे जुदा नहीं. मोनू इलाहाबाद के संगम तट पर प्लास्टिक के  डिब्बे बेचते हुए मिला था. उसे पाठशाला का नहीं पता. ठीक से अपना नाम भी नहीं बोल पाता लेकिन यहां गंगा घाट पर पाप धोने आने वालों से कहता है-डिब्बा ले लो भाई, गंगा जल भर लेना. महीनों तक चले आस्था के महामेले में वह भीख नहीं मांगा  बल्कि मनी के लिए मेहनत करता रहा. हालांकि उससे अलग शहर की सड़कों पर ऐसे कितने ही मोनू रोज दिखते हैं जो हथेलियों पर 1-2 रूपए पाने भीख मांगते हैं,आने-जाने वाली गाडिय़ों का शीशा पोछते हैं. भूखे पेट को भरने के लिए मदद  की याचना करते हैं. नंगे बदन , फटे-फुटे चिथड़े में..ये आने वाले भारत के भविष्य हैं.....

आधा दिन: पूरे घर की कमाई
Kishan-Vishal-Rajesh
इन तीन और स्कूली बच्चों को भी देख लीजिये। ये हैं राजेश, किशन और विशाल। तीनों महानगर पालिका विद्यालय में पढ़ते हैं. स्कूल से निकलने के बाद घर आते-आते 12- से एक बज  जाते हैं.  आधे दिन के  बाद  इनकी जिन्दगी की असली जद्दोजहद शुरू होती है.  दोपहर बाद एपीएमसी मार्केट में आते हैं. बड़े व्यापारियों के यहाँ से सस्ती सब्जियां और फल चुनते हैं. एक साथ बजार के सामने दुकान लगाते  हैं. माल बिका तो 100 से 200 रूपए कमा लेते हैं.  स्कूल ड्रेस में धंधे का रोज यही वसूल चलता है. ये भी भीख नहीं मांगते , मेहनत करते हैं। आधे दिन में पूरे परिवार की कमाई का जरिया है, इनका कारोबार। सस्ता और बच्चा समझकर लोग फल सब्जियां खरीद लेते हैं. जिस पर परिवार की गाड़ी चलती है। नौनिहालों की यह  कहानी देश की  आजादी के ६५ साल बाद की है. बहरहाल रोशनी का सर्कस बड़े-बच्चों को खूब लुभाता है, छोटू की कैंडी सबको पसंद आती है, लेकिन इनके मेहनत के  पीछे  आधी सदी की आजादी का दिवालियापन, दिन-दिन भर भटकने का दर्द, मौज-मनोरंजन की बजाय मुफलिसी  और मजबूरी भी साफ झलकती है. कभी नजदीक से मनी के लिए मेहनत करते इन मासूमों से रुबरू होकर आप भी अंदाजा लगाइयेगा, तब शायद आपको भी हिन्दुस्तान की 67 सालों की स्वाधीनता पर कोफ्त आ जाए.




बुधवार, 7 मई 2014

कुमार बाबू कविता सुनाओ न



जीत हार के घनचक्कर में फंसे और अमेठी से किस्मत आजमा रहे कुमार विश्वास का दिमाग डग्गम डग्ग हो रहा है. पहले राहुल आए थे तो अमेठीकरों को रिश्तों की कसमें खिला कर गए थे ,अभी वो भूला भी नहीं था कि नमो ने अपने जादुई भाषण का ऐसा पलीता लगाया कि अब अमेठीवासियों को केवल नमो नमो दिखता है. जैसे कभी कृष्ण के मथुरा से लौटने के बाद भी गोपियों को केवल हर जगह कृष्ण नजर आते थे वैसे ही अमेठी में जन-जन की जुबान पर मोदी छा गए हैं. कभी राहुल को भैया कहने वाले अमेठी के नौजवान भी अब नमो मंत्र जपने लगे हैं. क्या टीवी क्या अखबार क्या रेडियो हर तरफ मोदी के भाषणों की धूम है, चर्चा है, विश्लेषण चल रहा है. समझ नहीं आ रहा है कि अमेठी से मोदी लड़ रहे हैं या भाजपा की स्मृति इरानी. दांव पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की इज्जत लगी है. क्योंकि खोने को उन्हीं के  पास सबसे ज्यादा है. स्मृति इरानी तो यहां बाहर से गयी हैं. स्थानीय कांग्रेसी उन्हें आयातित और पैराशूट प्रत्याशी कहते हैं. चारो और राहुल और स्मृति इरानी के मुकाबले की चर्चा है. ऐसे में त्रिकोणीय मुकाबले के बीच रहे आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास अचानक सूर्खियों से आऊट हो गए हैं. उनकी चिंता बढऩा लाजमी है. वे कोश रहे हैं अरविंद केजरीवाल को जिन्होंने बिना सोचे समझे मीडिया से दुश्मनी मोल ले ली. उस मीडिया से जिसने अपने पेट की कमाई को दांव पर लगाकर बिना कुछ लिए ही केजरी को बड़ा बनाया. लेकिन जैसे ही कुछ पावर आया केजरीवाल उन्हें ही जेल में डालने की योजना बनाने लगे. खैर केजरीवाल की उस नादानी का नुकसान कर्मठ  कुमार विश्वास को भोगना पड़ेगा, ऐसा किसी ने सोचा तक नहीं था वो भी ऐसे दौर में जब जनता के बीच अपनी बात पहुंचाने के लिए मीडिया ही एकमात्र माध्यम हो. बहरहाल कुमार विश्वास केजरीवाल से खफा हैं. चिंता इस बात की भी है कि अमेठी में उनका शुरुआती दौर जिस जोश में चला वह 7 मई आते आते धारशाई हो गया. चिंता इस बात की भी है कि आखिर राहुल के अरमानों पर आखिरी दौर में पानी फेर गए और मतदाताओं को भाजपा को वोट देने के लिए जगा गए मोदी ने उनका भी खेल बिगाड़ दिया. जीत हार की इस उहापोह में कुमार का विश्वास डगमगाना लाजमी है. आखिर कौन ऐसा नहीं होगा कि अपनी इज्जत दांव पर हो और न चिंता करे. बुधवार 7 मई को उन्होंने आनन फानन में भगवान देवी देवताओं को मनाया, शीश झुकाए, पांव पड़े , मन्नत मानी की जीत जाएं. पोलिंग बूथ पर आए खुद के लिए जिन्दगी में पहली बार वोट डाला. खुद की जीत के लिए दुआ मांगी. जैसे ही बाहर निकले एक आम आदमी यानी समर्थक ने फरमाइश कर डाली. भैया जी कविता सुनाओ न? अब उस समर्थक को क्या पता कि जब इंसान चिंता में हो तो कविता नहीं खीझ निकलती है. और बात जब विरोधियों के जीतने की हो तो गुस्सा आता है. भैया ऐसे में कोई कविता सुनाने की फरमाईश करे तो गाली आती है. लेकि न क्या करे समर्थक को लगा कि कवि,लेखक किसी और दुनिया के लोग होते हैं जो दुख में हंसते हैं. शायद उसे कविता की परिभाषा मालूम होगी.वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान...समर्थक कविता कहने की फरमाईश कर रहा था. जैसे ही आम आदमी ने कुमार को कविता सुनाने की गुजारिश की विश्वास भड़क गए. भूल गए ऐसे ही आम लोगों ने उन्हें नेता बनाया और अमेठी में जिताने के लिए जीतोड़ मेहनत की. लेकिन कुमार ने उलटा समझा. अपने नाम की तरह. नाम विश्वास कुमार होता तो शायद सीधा समझ जाते लेकिन भावनाओं की कद्र किए बिना ही समर्थक का विश्वास तोड़कर कुमार आगे बढ़ गए..शायद उनके दिमाग में राहुल और मोदी के साथ समर्थक एक नई चिंता बनकर समा गया था.