शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

सोंच कर तो देख पगले, जा रहे हैं हम कहां


फोटो-गूगल से साभार
बढ़ रहे हैं पंथ मजहब, आस्था है घट रही.
आदमी हैं बढ़ रहे, पर आदमियत घट रही:
कौडिय़ों में हैं लगे, इमान भी बिकने यहां ।
सोंच कर तो देख प्यारे जा रहे हैं हम कहां  ॥

राजनीति और नेता से, न आशा कुछ रही,
नींद व उम्मीद टूटी, ना दिलासा कुछ रही.
वोट लेकर हो गये, वो कातिलों के हमनवां ..

पद-प्रतिष्ठा और पैसे हित, मनुज है मर रहा,
दूर्गुणों से जेब अपनी, त्याग सदगुण भर रहा.
भोग लिप्सा में रहे, इंसानियत सब हैं गवां .3.
सोंच कर तो देख पगले जा रहे हैं हम कहां....
                         
बंद हैं कल-कारखाने, मिल बड़ी छोटी यहां,
त्रस्त हैं जन ढूंढते, धंधा, गयी रोटी कहां.
जुर्म से जुडऩे लगे,रोटी से लड़ते नौजवां   ॥

शहर आया गांव तो, गुलजार मयखाने हुए,
नौजवां परदेश में, चौपाल बीराने हुए.
हल हुआ घायल,किसानों का भी बिखरा कारवां ॥
सोच कर तो देख पगले, जा रहे हैं हम कहां....।।।

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