
फिल्म दामिनी की तरह दिघा की अवैध इमारतें भी तारीख पर तारीख के इंतजार में मुर्दा होती जा रही हैं. मुर्दा इसलिए कि बेघर होने और घर टूटने की चिंता में जितने परिवार यहां रहते हैं वे जिन्दा लाश बन चुके हैं. जिन लोगों ने यह अवैध संकट लाखों रुपयों के बदले इन्हें बेचा वे थोथी उम्मीद बंधा रहे हैं कि 'सब अच्छा होगा'. जबकि उम्मीद बंधाने वालों के विरोधी दिनरात यही मनाते हैं कि अदालत सबको बेघर करने का फैसला सुना दे..उम्मीद और तारीखों के बीच नेता श्रेय की ऐसी राजनीति खेल रहे हैं जिसने यहां के 4 हजार परिवारों और 30 हजार लोगों की नींद उड़ा दी है. राजनीतिक घमासान, मनपा और एमआईडीसी की कार्रवाई, विरोध पर पुलिसिया डंडे और गिरफ्तारी दिघाकरों के लिए किसी नरक यातना से कम नहीं हैं. पीड़ित रहिवासी इतने मानसिक तनाव में हैं कि उनके सामने समाधान का आखिरी रास्ता खुदकुशी और जान देने के सिवा नजर नहीं आता.
आखिर दिघाकरों का कसूर क्या है..
क्या गरीब लोगों को घर नहीं चाहिए..मुंबई में आने वाले हर शख्स को रोटी मिल जाती है लेकिन घर नहीं मिलता..लोग रिश्तेदारों और पहचानों के यहां दिन काटते हैं.जिनका कोई नहीं उन्हें.सड़क फुटपाथ पर सोने को मजबूर हैं..ऐसा हर शख्स खुद का आशियाना चाहता है..क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अपने घर में चंद रोज भूखे भी रहे तो भी सूकून मिलता है..दिघाकरों ने यह पाप किया है. रोटी कपड़ा तो उन्होंने कमा लिया था लेकिन मकान उनकी जरुरत थी जिसे दिघा के सौदागरों से मिली. नियम है कि 20 साल के वास्तव्य है तो कानूनी है लेकिन यहां तो उसकी सुनवाई नहीं है..खैर घर बचाने सूबे के मुखिया 'देवेन्द्र' आगे आए .मदद का भरोसा दिलाया तो जीने की नयी आस बंधी.सरकार ने कहा था कि यदि हाइकोर्ट इमारतों को नहीं बख्सता है तो वे सुप्रीम कोर्ट तक जाएंगे..हुआ भी वही..जैसे ही हाइकोर्ट ने तोड़ी जाने वाली 8 इमारतों को और मोहलत देने से मना किया , एमआईडीसी शीर्ष अदालत भागी. फैसला रहिवासियों के लिए राहत भरा आया..एमआईडीसी के भी पक्ष में जो मानसून की आड़ में कार्रवाई स्थगित करने की अपील कर रही थी. रोने का मन था ..आंसू आ गए...एमआईडीसी के लिए कुछ ऐसा ही रहा..सब ने राहत की सांस ली...जिन अधिकारियों की काली कमाई के कारण दिघा की अवैध इमारतों का जंजाल परवान चढ़ा.जहां हजारों लोगों का आशियाना दांव पर लगा है. जो आज टूटने की कगार पर है....उन्हें कुछ तो जिन्दगी मिली.
खैर सुप्रीम कोर्ट से 45 दिनों की मोहलत मिल गयी है तो हजारों चेहरे खिल गए हैं कुछ दिनों के लिए ही सही..लेकिन ये खुशी अस्थाई है. सर्वोच्च अदालत में राज्य सरकार यदि रेगुलराइजेशन का न्यायसंगत और नया प्रस्ताव पेश करने में बिफल होती है तो दिघाकरों को बेघर होने से कोई भी नहीं बचा सकेगा. यह बड़ी कसौटी इसलिए है क्योंकि इससे पहले 7 महीनों तक बांबे हाइकोर्ट में सरकार न्यायसंगत प्रस्ताव प्रस्तुत करने में फेल रही है. उसने राज्य भर के अवैध निर्माणों को नियमित करने ऐलान किया था, लेकिन उसके तरकश में न्यायसंगत प्रावधानों का अभाव था..शायद जानबुझकर भी आवास्तव प्रस्ताव दाखिल किए गए ताकि अदालत में वक्त खींचा जा सके...दिघाकर हर रात नींद गंवाकर सोते रहे लेकिन सरकार को तो चाहिए थी वही तारीख पर तारीख.....तारीख पर तारीख.....
सरकार चाहती तो उल्हासनगर में अवैध इमारतों को नियमित करने के विशेष प्रपोजल के आधार पर दिघाकरों को न्याय दिला सकती थी, उसके सामने मुंबई के कैंपा कोला जैसी विशाल इमारत का फैसला भी था. गवर्नमेंट ने दोनों को दरकिनार कर दिया. अब बारी देश की सर्वोच्च अदालत के सामने खुद को जनता का हितैषी साबित करने की है, यहां 31 जुलाई को फिर सुनवाई होनी है. 43 दिन शेष बचे हैं इसके भीतर महाराष्ट्र सरकार को हाइकोर्ट से जुदा नया और न्यायसंग प्रस्ताव पेश करना होगा..वर्ना दिघाकरों को जिन्दा रहने की दिलासा दे चुके देवेन्द्र शीर्ष अदालत में हजारों जिन्दगियों के गुनहगार साबित होंगे. हजारों परिवार उजड़ेंगे तो बददुआ भी देंगे जो अगले चुनाव में सरकार के लिए शाप साबित हो सकता है. अच्छे दिनों का वादा करने वाली भाजपा के खिलाफ जनाक्रोश भी पैदा होगा. अदालत का निगेटिव फैसला अच्छे दिनों पर कलंक साबित होगा. संभव है बेघर हो चुके रहिवासी कमल को गरियाएंगे, तीर धनुष को धिक्कारेंगे..तब शायद कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ फिर उभरेगा..जैसा कि जिलाध्यक्ष दशरथ भगत दावा करते हैं कि उनकी आघाड़ी सरकार ने कभी जनता को बेघर नहीं किया...यह सरकार ऐसी है जो वादा आवास देने का करती है लेकिन काम घर तोड़ने वाला कर रही है. जिसके शासन में महंगाई और मनमानी से जनता मरने को मजबूर है..ऐसी सरकार अच्छी हो तो भी क्या फायदा.....
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