| फोटो-गूगल से साभार |
आजादी के 75 साल गुजरने के बाद भी अनगिनत भारतीय रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में हैं. कुछ इतने भूखे हैं कि उन्हें रोटी के शिवा भगवान किसी और रुप में दिखता ही नहीं. लाखों लोग बेघर हैं और सड़क फुटपाथों पर खुले आसमान के नीचे सोने को मजबूर हैं. जिन हुक्मरानों पर इनके उत्थान की जिम्मेवारी हैं वे पंथ-प्रांत और पॉलिटिक्स में बंटे और बिखरे हैं. इसलिए अपना हिन्दुस्तान अब तलक अधूरा है.अपुन अधूरे हिन्दुस्तान को पूरा करने निकले हैं ..आप का भी स्वागत है...
सोमवार, 17 फ़रवरी 2014
शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014
गरीबों को चुनावी लालीपॉप बाँट रही सरकार
यूपीए सरकार के दिन जैसे जैसे लड़ते जा रहे हैं वैसे वैसे वह हर बार कि तरह गरीबों और मुसलामानों को लुभाने कि कोशिश करने लगी है। सड़क पर मजदूरों के लिए खुद का मकान ,ठेला खोमचा लगाने वालों को मकान और रोजगार के लिए लाखों का कर्ज, इंदिरा आवास योजना कि तर्ज पर राजीव आवास योजना कि घोसणा सहित और दर्जनो योजनाए। .वओ भी सब गरीबों के लिए। भाजपा कहती है कि यह सब य़ह सब चुनावी ललिपॉप है ,राहुल गांधी कहते है यह गरीबों का हक़ है जो यूपीए सरकार उन्हें देना चाहती है…सवल ये है कि ४ साल पहले दे देती तो क्या हो जाता। जरुरी तो नहीं कि जिस जनता कि इतनी चिंता करो भी और उसे ५ सालों तक तड़पाओ भी.
ऐसी ही एक योजना का ३१ जनवरी को ऐरोली के पटनी ग्राउंड पर २० हजार लोगों कि मौजूदगी में केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने उद्घाटन किया था ।भुखमरी मिटाने और अन्न के कानूनी अधिकार देने के मकसद से प्रारम्भ हुयी इस महत्वाकाँक्षी योजना से ४५ फीसदी शहरी और ७६ फीसदी ग्रामीण इलाकों को लाभ देने का एलान किया गया. कृषि मंत्री ने उम्मीद जतायी कि अब कोई भी गरीब अन्न के अभाव में भूखा नहीं रहेगा.लेकिन सरकार कि इस योजना में शुभारंभ के दिन ही घपला शुरू हो गया.राशन वालों ने १ आदमी पर ५ किलो अनाज कि बजाये केवल २-३ किलो दिया बाकी निगल गए.अब भी यही सिलसिला जारी है.न कोई देखने वाला है न कोई सुनने वाला। . अंधेर नगरी चौपट राजा, टेक शेर भाजी टेक सेर खाझा। सरकार ने सोचा होगा गरीबों के नाम पर फिर चुनाव कि बैतरणी पार होने का मौका मिलेग। लेकिन हो रहा है उल्टा। ....
योजना में ६० हजार आय वाले एक ब्यक्ति को प्रति माह ५ किलो अनाज जबकि अंत्योदय के तहत ४४ हजार से कम आय वालो को प्रति माह ३५ किलो अनाज मिलेगा।राशन दुकानो से मिलने वाले खाद्यान्न में १ रुपये किलो ज्वार-बाजरा, २ रुपये किलो गेहूं और ३ रूपये किलो चावल देने का प्रावधान है अन्न सुरक्षा अभियान संस्था कहती है कि इससे पौने ८ करोड़ राशन कार्ड धारकों को भले ही लाभ मिलेगा लेकिन १.७७ करोड़ ऐसे जरुरत मंद लोग इस से वंचित रह जायेंगे जिनके पास राशन कार्ड ही नही है.मांग है कि अनाज के साथ दाल और तेल का भी वितरण होना चाहिए।
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| फ़ोटो -गूगल से साभार |
ऐसी ही एक योजना का ३१ जनवरी को ऐरोली के पटनी ग्राउंड पर २० हजार लोगों कि मौजूदगी में केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने उद्घाटन किया था ।भुखमरी मिटाने और अन्न के कानूनी अधिकार देने के मकसद से प्रारम्भ हुयी इस महत्वाकाँक्षी योजना से ४५ फीसदी शहरी और ७६ फीसदी ग्रामीण इलाकों को लाभ देने का एलान किया गया. कृषि मंत्री ने उम्मीद जतायी कि अब कोई भी गरीब अन्न के अभाव में भूखा नहीं रहेगा.लेकिन सरकार कि इस योजना में शुभारंभ के दिन ही घपला शुरू हो गया.राशन वालों ने १ आदमी पर ५ किलो अनाज कि बजाये केवल २-३ किलो दिया बाकी निगल गए.अब भी यही सिलसिला जारी है.न कोई देखने वाला है न कोई सुनने वाला। . अंधेर नगरी चौपट राजा, टेक शेर भाजी टेक सेर खाझा। सरकार ने सोचा होगा गरीबों के नाम पर फिर चुनाव कि बैतरणी पार होने का मौका मिलेग। लेकिन हो रहा है उल्टा। ....
योजना में ६० हजार आय वाले एक ब्यक्ति को प्रति माह ५ किलो अनाज जबकि अंत्योदय के तहत ४४ हजार से कम आय वालो को प्रति माह ३५ किलो अनाज मिलेगा।राशन दुकानो से मिलने वाले खाद्यान्न में १ रुपये किलो ज्वार-बाजरा, २ रुपये किलो गेहूं और ३ रूपये किलो चावल देने का प्रावधान है अन्न सुरक्षा अभियान संस्था कहती है कि इससे पौने ८ करोड़ राशन कार्ड धारकों को भले ही लाभ मिलेगा लेकिन १.७७ करोड़ ऐसे जरुरत मंद लोग इस से वंचित रह जायेंगे जिनके पास राशन कार्ड ही नही है.मांग है कि अनाज के साथ दाल और तेल का भी वितरण होना चाहिए।
पैसों के लिए ही ये संसद चलती है;
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| फोटो-गूगल से साभार |
कर लो भई जो चाहे,जब मुट्ठी में पैसा है.
पैसों के लिए ही ये , संसद चलती है;
पैसों की खातिर ही सियासत रंग बदलती है।।
साहस औ लाचारी -अभिमान ये पैसा है।।१।।
भगवान ये पैसा है,ईमान ये पैसा है।।
पैसों के पीछे हैं,नेता -अफसर भागे।
हर कोई बस यारों ,पैसा-पैसा मांगे।
कपडे ,ताबूत-कफ़न मे, पैसों की जरुरत है,
पैसा ही पूजा है,अरदास-इबादत है।।
ईशा -अल्ला-अपना रहमान ये पैसा है।।२।।@
भगवान ये पैसा है,ईमान ये पैसा है।
हो जाते पूत-कपूत,जो नहीं कमाते है.
पैसों के खातिर ही,सब रिश्ते-नाते है,
जब जेब रहे खाली .बिन पैसे-बिन पाई।
वैरी हो जाते- सब बीबी-बच्चे-भाई।।
माँ-बाप की चाहत में ,संतान ये पैसा है।।३।।@
भगवान ये पैसा है,ईमान ये पैसा है।
पैसों के पावों पर, ये दुनिया चलती है.
कहते हैं पैसों से, तकदीर बदलती है;
पैसों की बदौलत ही सब रौशनाई है।
पैसों से ही बजती,आँगन में शहनाई है।। ..
भगवान ये पैसा है-ईमान ये पैसा है।।
ईशा -अल्ला-अपना रहमान ये पैसा है।।
भगवान ये पैसा है-ईमान ये पैसा है।
---सुधीर शर्मा
---सुधीर शर्मा
मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014
लोग हमें ’’एलियंस’’ कहते हैं
माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली दो सगी बहनॉ की दास्तान "हमारे मां-बाप ने हमारे सपने के लिए सब कुछ त्याग दिया. हमारा यही कहना है कि अपनी लड़कियों को घर में बंद कर, पिंजरे में कैद करके नहीं रखिए, उन्हें उड़ने दीजिए."
ताशी और नुंगशी मलिक दुनिया की पहली जुड़वां बहने हैं जिन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी क्लिक करेंमाउंट एवरेस्ट की चढ़ाई की. ये कारनामा उन्होंने 19 मई 2013 को किया था.इस बारे में नुंगशी मलिक कहती हैं, "लोग वही काम करते हैं जो हो चुका है क्योंकि उन्हें लगता है कि उसी में सफलता है. लेकिन हमारा मक़सद है ज़िंदगी में जो अलग और मुख़्तलिफ़ हो, वो किया जाए. इसलिए लोग हमें ‘’एलियंस’’ भी कहते हैं."साल 2009 में स्कूली शिक्षा ख़त्म करने के बाद कुछ अलग और ‘एंडवेंचरस’ करने की ख़्वाहिश थी जिसकी वजह से मलिक बहनों ने पर्वतारोहण को चुना. इसका प्रशिक्षण लेने के बाद साल 2010 से मई 2013 के बीच भारत और विदेश की कुछ चोटियों पर चढ़ने के बाद किसी भी और पर्वतारोही की ही तरह ताशी और नुंगशी ने भी नज़रें टिका दीं एवरेस्ट पर.
जोखिम भरा काम
ताशी कहती हैं, "2010 में पहली बार पहाड़ की चोटी पर कदम रखना बहुत अलग अनुभव था. उसके बाद से ही मैं माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई का सपना देखने लगी. मुझे सोते वक्त, खाते वक्त, हर वक्त एवरेस्ट ही दिखाई देता था."
मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014
लोकतंत्र का खून मैंने नहीं किया
हाल में कांग्रेस के युवराज टीवी पर साक्षात्कार देते हुए एक ऐसा सच बोल गए जिसने समाज के एक पुराने जख्म को कुरेद दिया। पले-पुसे, नपे-तुले राजनेता के लिए तो यह दुर्घटना ही है। परंतु राजनीति की रपटीली राहों पर ऐसा होता है। कभी जानबूझकर, तो कभी अनजाने में। यह सब सोचा-समझा था या 500 करोड़ की पॉलिश की पहली चमक, हम इस बहस में नहीं पड़ते।
'84 का जिक्र पूरे समाज में सिहरन पैदा करता है। समाज की सोती टीस उभारना वैसे भी कम बड़ा अपराध नहीं, परंतु यदि इसके पीछे आगामी संसदीय सत्र में साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा(निरोधक) विधेयक को आगे ठेलने की किंचित भी मंशा है तो यह अपराध अक्षम्य हो जाता है।
पन्ने पलटिए, सिख दंगा साम्प्रदायिक हिंसा नहीं, राजनैतिक दल द्वारा भड़काई वह आग थी जिसमें एक व्यक्ति की मौत पूरे समाज के मातम में बदल गई। तब के उन्मादी हुल्लड़बाज अगर आज भी ठसक के साथ कलफ लगे कुर्ते की बाहें चढ़ाते दिखते हैं तो इसकी जिम्मेदार न्यायपालिका नहीं कुनबापरस्ती को सलाम बजाते कांग्रेसी राज की वह मानसिकता है जिसने पीडि़तों को झिंझोड़ा और दोषियों को नहीं छेड़ा।
लोकतंत्र को घुन की तरह खाते, लोगों को बांटते- काटते इस वंशवाद ने समाज को कितने गहरे घाव दिए, लोक और तंत्र दोनों को खोखला करती अराजकता को किस तरह हर मौके पर पोसा, आज यह जांचने का वक्त है।
व्यक्ति का कुशलक्षेम राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता है, यह सर्वमान्य है किसे इस बात से विरोध होगा। किंतु इसी बिन्दु की आड़ में मनमानी का बिगुल फूंकना, लोकतंत्र को पार्टी या वंश समर्थक भीड़ का बंधक बना छोड़ना क्या राष्ट्र के विरुद्ध अपराध नहीं? अब अपराधी संगठित हो रहे हैं। गिरोहबंदी इस देश और समाज की ताकत के खिलाफ है। जिस देश विरोधी सुर की गूंज कल सलाहकार परिषद् तक थी आज उसी अराजकता का विस्तार राजपथ पर लोटते लोकतंत्र के रूप में हमने देखा है।
दूसरा अध्याय था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् का आवरण ओढ़ संवैधानिक जिम्मेदारियों से परे, देश की चुनी हुई सरकार पर संदिग्ध और लांछित पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा हुक्म चलाना।
तीसरा अध्याय है राष्ट्रविरोधी परोक्ष धाराओं का प्रत्यक्ष मिलन और देश की छाती पर चढ़कर अराजकता का खुला ऐलान।
आपातकाल में इंदिरा, '84 में राजीव और यूपीए कार्यकाल में सोनिया गांधी जो काम बंद कमरों में कर रही थीं अरविंद केजरीवाल और सोमनाथ भारती वही अराजक आलाप आज सड़कों पर कर रहे हैं। ऐसे में पुख्ता तौर पर कोई कैसे कह सकता है कि भविष्य को लेकर कुनबे और ह्यक्रांतिह्ण के तार नहीं जुड़े हैं। प्रधानमंत्री के किसी अध्यादेश पर बौखलाने वाले युवराज एक अराजक मुख्यमंत्री को सबक सिखाने सड़क पर नहीं उतरते बल्कि उससे कुछ सीखने को आतुर दिखते हैं तो यह अकारण नहीं है। साक्षात्कार में आम आदमी सी भोली मुद्रा भी और दंगे का जिक्र भी अकारण नहीं है।
जिन हाथों ने '84 में सिखों को निशाना बनाया आज वही 'साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा(निरोधक) विधेयक' लहराने और हिन्दू सहिष्णुता पर कुल्हाड़ी चलाने के लिए बढ़े हैं। दुस्साहस और सादगी का यह छलावा कितना घातक है, हमें समझना होगा।
भला दिखता कोई चेहरा बुदबुदाता है, 'पेड़ गिरता है जमीन हिलती ही है', लोग माफ कर देते हैं।
'आम' दिखता कोई आदमी अदालतों को ललकारता है, पुलिसकर्मियों में बगावत के बीज बोता है, लोग फिर माफ कर देते हैं।
टी.वी.स्क्रीन पर पसीना पोंछता कोई मासूम चेहरा अपना दामन बचाते हुए कहता है कि दाग दूसरों ने दिए हैं...भला लोग कब तक माफ करेंगे।
समाज को लहूलुहान करने वाले चेहरे भोले हैं मगर इन हाथों में बर्छियां हैं। जिन्हें हम माफ करते रहे, उन्होंने देश और लोकतंत्र को साफ करने की ठानी है।
भय और अराजकता की ओर धकेलती इन सियासी गिरोहबंदियों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ इसलिए मद्धम नहीं पड़नी चाहिए क्योंकि हमलावरों के चेहरे बड़े भोले हैं।
--पांचजन्य से साभार
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