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| दिघा में कार्रवाई रोकने रहिवासियों का रास्ता रोको |
तोड़ू कार्रवाई से बेघर होने की पीड़ा झेल रहे नवी मुंबई के सैकड़ों परिवार रात की नींद और दिन के चैन के लिए मोहताज हो गए हैं. आशियाना छिना है तो जीना भी हराम हो गया है. पतपेढी, नीजी बैंकों और साहूकारों से ब्याज पर पैसा उठाकर घर खरीदना घाटे का इतना बड़ा सौदा साबित हुआ है कि जिन्दगी रहते इसकी भरपाई नजर नहीं आती. दिघा के संतोष ने कहा कि बेघर होना और भाड़ा चुकाते हुए कर्ज भरना भारी संकट बन गया है.दिघा में इस बार न तो दिवाली मनी न तो छठपूजा हुई. ये वो इलाका था जहां इन त्यौहारों पर सबसे ज्यादा आतिशबाजी और धूम धड़ाका होता था, लेकिन उजाड़ कार्रवाई ने सबको सड़क पर ला छोड़ा है फिर त्यौहार मनाएं भी तो कैसे....
न टूटने वाला मकान चाहिए भाई ..
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| घर टूटने के बाद का नजारा..जहां हरियाली और बेबसी बिखरी पड़ी है |
सस्ता घर खरीदकर खो चुके लोग कहते हैं कि अब समझ में आया है कि लीगल होने का मतलब क्या होता है. पीड़ित लोगों के लिए वैध मकानों की अहमियत तब समझ आयी है जब उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं है. जब थी तब सस्ते की लालच में अवैध को पाने का जोखिम उठाया, और अब जब सब कुछ लुट गया है, तो बचा है सिर्फ पछतावा. आंसू और गम... अब ऐसी इमारतों की दरकार हो उठी है जो सस्ती भी हो और लीगल भी. जानकार सवाल उठाते हैं कि आखिर कौन ऐसा है जो सुरक्षित आशियाना नहीं चाहता है. गरीब आदमी तो इल्लीगल घर तब खरीदता है जब वो औकात और बजट से बाहर की बात हो जाती है. इसीलिए तो मजबूरन जोखिम उठाते हैं लोग. खैर इसे कानून नहीं समझता..अगर बात समझ में आती तो कोर्ट किसी सभ्य रहिवासी को दूबारा खानाबदोस क्यों बनाता. सड़कों पर सोना आखिर खानाबदोस जीवन ही तो है साहब.... इन हालातों को देखकर हर किसी के कान खड़े हो रहे हैं जो अब तक साबूत बची अवैध इमारतों में रहते हैं. कल उनकी बारी आने वाली है. बहरहाल सड़क पर आने से पहले ही भयभीत रहिवासी सुरक्षित ठिकाना ढूंढ रहे हैं. लोग ऐसे घरों की तलाश में हैं जो पूर्णत: लीगल हो और जिसके टूटने की गुंजाइश भी न हो..वर्ना आसमान से टपके और खजूर पर लटके वाली कहानी हो जाएगी..फिलहाल कोई भी ऐसा नहीं है यहां जो यह कहानी बनने की हालत में दिखता हो...
तोड़ू कार्रवाई से डी-रेल हो गयी है जिंदगी
बुलडोजर के दर्द ने जिन्दगी की गाड़ी को बेपटरी पर ला दिया है. ..49 वर्षीय सुभाष के मन में अक्सर खुदकुशी का फितूर घूमता है. वह रोते हुए कहता है साहब '' 3 बच्चों का चेहरा यादकर भाड़े की झोपड़ी में लौट आता हूं वर्ना जीने का मन ही नहीं करता'...65 साल की सीताबाई दो बेटों के साथ एक झोपड़ी में अधमरी पड़ गयी है. इस पर टूट चुकी बिल्डिंग और बेघर होने का भारी सदमा पहुंचा है. सीताबाई का छोटा बेटा सुरेश कहता है कि भ्रष्ट अधिकारियों व कथित समाजसुधारकों ने हम गरीबों की जिन्दगी में जहर घोल दिया है. मिल जाएं तो उनका खून पी लूंगा. टूटा दिल, और बिखरे सपने लेकर 3 महीने से सड़क हासिए पर सो रहा सुनिल बेघर होने को तकदीर का तकाजा मानता है. वह कहता है कि नवी मुंबई में बड़े बड़े बिल्डरों ने कितनी ही अवैध इमारतें बना रखी हैं, कोर्ट कचहरी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, हम गरीब सस्ता मकान क्या खरीद लिए, साला आफत आ गयी है. यहां तो अपना नहीं अंग्रेजों का राज लगता है..
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